समर्पण —-3 — संत अखंडा नन्द जी


बाबा जी के पास जाने से पहले मेरी मुलाकात गुरु कृपा से ऐसे विशेष साधकों से हुई जिनका जिक्र करना अनिवार्य समझता हूँ | उसी के अंतर्गत यह लेख दे रहा हूँ | मेरे जीवन के वो सुनहरी पल थे |

लुधियाना में शिविर था, उससे पहले रात्रि को स्वप्न आया, पूज्य गुरुदेव स्वप्न में आये और कहा बेटा कल शिविर में मेरा एक बहुत पुराना शिष्य आने वाला है, तुम उससे मिल लेना | इससे पहले मेरे पास साधना कक्ष ना होने की वजह से कई काम अधूरे रह जाते थे और मैंने एक गाँव के बाहर ही घने दरख्तों की एक छोटी सी झिड़ी को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था | उस तरफ दिन में भी बहुत कम लोग आते थे | बीच में एक कुआँ था और सर्प आदि ऐसे घूमते रहते थे तो लोग कम ही आते थे और मैं गुरूजी से प्रार्थना किया करता था,  गुरूजी साधना स्थल की जरूरत है और जब गुरूजी ने मुझे स्वप्न में बताया तो यह बात मैंने अपने दोस्त को बताई जो बाद में हमारा गुरु भाई बना | हम लुधियाना शिविर पहुंचे और मेरी नजरें उसको तलाश रही थी |एक चाय की दुकान शिविर स्थल के बाहर थी तो हम उस तरफ चले गये तो वहां बाबा हुस्न चंद जी बैठे थे | नजर मिलते ही मैं उन्हें पहचान गया कि यही हो सकते हैं | शिविर समाप्ति पर रात्री वहीँ रुक गये | बाबा हुस्न चंद जी मेरे पास ही थे | उन्होंने कहा, तुझे गुरूजी ने रात्रि कोई बात कही थी | मैंने कहा हाँ तो उसने बताया, मुझे भी कहा था तुम्हारे बारे में | तुम्हारे पास दादा गुरुदेव की फोटो है और तुम उसे लाल वस्त्र में लपेट कर हमेशा अपने पास रखते हो, गुरु जी ने यही निशानी बताई थी, क्या तुम्हारे पास है ? मैंने हाँ  कहा |  यह बात मैंने कभी किसी को नहीं बताई थी | मुझे पता चल गया था गुरूजी इसी का जिक्र कर रहे थे | उसने मुझे अपना एड्रेस दिया और आने के लिए कहा | शिविर के कुछ ही दिन बाद मैं और मेरा एक साथी वहां उनसे मिलने के लिए चल पड़े और पूछते हुए उनके बताये हुए पते पर पहुँच गये |

बाबा हुस्न चन्द जी काफी पहुंचे हुए साधक हैं और गुरूजी से 60 के दशक में दीक्षा प्राप्त की थी | तब ना पत्रिका निकलती थी और ना ही बाहर कोई शिविर होते थे | आश्रम में ही शिविर लगाया जाता था और 108 माला रोज गुरु मन्त्र दिया जाता था | गुरु जी साधना के मामले में काफ़ी सख्त थे और जो नहीं जप करता था उसे शिविर से उठाकर बाहर फेंक दिया जाता था | हुस्न चन्द ने कई संतो की संगत और सेवा प्राप्त की थी और 16 वर्ष  शमशान में रह कर सिद्धियाँ भी की थी और पानी में खड़े होकर कुछ विशेष सुलेमानी साधनाएं भी की हैं जिन्हें साधने के लिए वर्षों तप किया और आज भी निखिलेश्वर महादेव मंदिर जोकि गुरु कृपा से उन्ही के आदेश अनुसार बना,  में रह रहे हैं | हम दो दिन वहां रुके और उनसे पूछा कि क्या मैं आपके सानिध्य में रह कर साधना कर सकता हूँ,  आप मुझे मार्गदर्शन दें तो बहुत कृपा होगी | उन्होंने स्वीकृति दे दी | कुछ दिनों के पश्चात मैं वहां रहने के लिए चला गया और वहीँ अखंडानन्द जी से मुलाकात हुई | अखंडानन्द जी एक साधू थे जो सुभाष चन्द्र बोस की सेना में एक स्वतन्त्रता सेनानी रह चुके थे | सन 47 के गदर में उनका पूरा परिवार खत्म हो गया था और वो साधू हो गये थे और अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में यहाँ आ गये थे और हुस्नचन्द जी के साथ गुरु मंदिर में रहने लगे थे | कुछ ही दिनों में हम तीनो में बहुत अच्छी जान पहचान हो गई और हम नित साधना के नये आयामो की खोज करने लगे | दिन को थोड़ा बहुत कार्य खेतों में मैं और हुस्न चंद कर लेते, शाम को साधना में लीन हो जाते और पूर्णिमा को हवन करते, जिसमें भाग लेने के लिए आस पास के कई गुरु भाई आ जाते | मुझे अनेक साधनाओं को सीखने और समझने का मौका मिला, जो हुस्न चन्द जी और अखंडानन्द जी जैसे साधक की सेवा पाकर अपने आपको सौभाग्यशाली मानता था | हुस्न चंद साधना के मामले में काफी सख्त हैं और जिस काम को करने की ठान लेते थे करके छोड़ते थे | सिर्फ उस काम में पड़ने की देर थी और सभी विद्या उन्होंने संतों और बहुत पहुंचे हुए महात्माओं से आत्मसात की थी और अखंडानन्द जी भी पंजाबी जानते थे और पत्रिका पढनी उनके लिए मुश्किल थी, वो कमी मैंने आकर पूरी कर दी थी | जो भी प्रयोग आता उसे करने के लिए लालायित हो जाते | हुस्न चन्द जी ने गुरुदेव जी से काफी ज्ञान कंठ किया था और सहज ही बता देते थे | साबर साधनाओं के धनी थे, जिनमें काफी साधनाएं उन्होंने मुझे संपन्न कराई और कुछ विशेष तंत्रों की  खोज भी की थी जो बहुत प्रभावकारी थे |

मैंने उनसे पूछा कि आपने दीक्षा कैसे प्राप्त की और गुरु जी से कैसे मिले तो उन्होंने जो तथ्य स्पष्ट किये आगे के लेख में दूंगा |

अखंडानन्द जी ने कहा मैं भिक्षा के लिए यहाँ वहां भटकता था मगर कहीं शांति नहीं मिली | जब मैं फ़ौज में था तो बोर्डर पर दुश्मन का सामना करते हुए एक गाय आगे आ गयी थी और उसे गोली लगने से उसकी हत्या हो गई तो मैंने फ़ौज छोड़ दी और साधू बन गया | अनेकों तीर्थों पर गया लेकिन मन शांत नहीं हुआ | एक बार अपना जीवन समाप्त करने के लिए चलती गाड़ी से कूद गया और तभी मुझे किसी ने गिरते ही थामा और कहा, मिस्त्री चोट तो नहीं लगी और मुझे छोड़ कर अदृश्य हो गये | मैं फ़ौज में मिस्त्री था इनको कैसे पता और कहाँ गायब हो गये | मगर मैं समझ गया कि मुझे कोई बचाना चाहता है, मगर कौन था वो सफ़ेद धोती और कुरता पहने हुए | फिर एक बार कहीं जा रहा था और रास्ता भटक गया और 8 -10 किलोमीटर चलने पर अँधेरा हो गया | मैंने 60 किलोमीटर जाना था, अचानक पीछे से गाड़ी आई और उसी गाड़ी में वोही धोती कुरता पहने बैठे थे, मिस्त्री गाड़ी में बैठो और मैं बैठ गया और वो मुझे मेरी मंजिल की तरफ ले गये | इससे पहले मैं कुछ पूछता उन्होंने कहा, मिस्त्री तुम्हारे रहने का इंतजाम यहाँ होटल में कर दिया है और भोजन भी कर लेना, मैंने पैसे दे दिए हैं | तुम अपना काम कर के जब वापिस जाओ तो उन्हें पैसे मत देना | मेरे पास पैसे नहीं हैं इन्हें कैसे पता और मैं उनसे पूछने लगा तो समेत गाड़ी गायब हो गये | (कर्मशः)